Thursday, March 29, 2007

आनन्‍द

इस समूची सृष्टि में अनेकाविध भावानाओं और वृत्तियों का विशाल समूह मानव जीवन पर छाया रहता है. वह अनन्‍त कामनाओं एवं तृष्‍णाओं से उद्वेलित रहता है और एक परम-लाभ की - चित्तलाभ की कामना में लीन रहता है. वह इस भावपूर्ति के लिए जीवन वृ‍त्तियों का चिन्‍तन तथा विश्‍लेषण करता है तथा एक परम सन्‍तोष तथा शन्ति की भावस्थिति में पहुंचना चाहता है. वह स्थिति, दर्शन, धर्म, मनोविज्ञान के अध्‍ययन के परिणामस्‍वरूप आनन्‍द नामक चित स्थिति से अभिहित की गई है. यही भूमा का सुख, जो परमसुख है, आदिरूप है, आनन्‍द कहा गया है. इतर सुख सांसारिक पदार्थ प्रदत्त सुख अल्‍प कहे गए हैं, वे अपूर्ण हैं. जहां मन की गति‍ समाप्‍त हो जाती है, मैं और ममकार की अल्‍प स्थिति से जो स्थिति परे है वही मूल प्रकृति है, वही आनन्‍द है्.
जीवन गति और व्‍यवहार के विश्‍लेषण के स्‍वरूप हमारा श्रेष्‍ठतम प्राप्‍तव्‍य आनन्‍द ही सिद्ध होता है, यही हमारे जीवन का परम प्रयोजन है. आनन्‍द आत्‍मलाभ है, यह आत्‍म परिचय है, यही आत्‍मज्ञान, आत्‍मदर्शन है. यह अपने स्‍वरूप का विस्‍तार है अथवा यह पूव्र में अपरिचित अपने स्‍वरूप को चीन्‍ह लने का नाम हे, यही आत्‍मपरिचय कहलाता है. यह भी अनुभव किया गया है कि जैव या देहवृ‍त्ति के अव्‍याहत संचार तथा उस वृत्ति के कारण जैव पुरुष की सार्थकता तो सिद्ध होती हे, साथ ही उसमें आनन्‍द भी मिलता है. सभी लोकों के अस्तित्‍व के मूल में आनन्‍द है, यह समस्‍त सृष्टि आनन्‍द से भरी हुई है, इस भाव को उपनिषदों में प्रस्‍तुत किया गया है.
आनन्‍दो ब्रह्मेति व्‍यजानात्
आनन्‍दाद्ध्‍येव खल्विमानाभूतानि जायन्‍ते
आनन्‍देन जातानि जीवन्ति
आनन्‍दं प्रयत्‍यामि संविशन्‍तीति
सर्वेषा आनन्‍दानामुषस्‍थ एकायनम्
आनन्‍द से ही भूतों की उत्‍पत्ति होती है. आनन्‍द से ही उत्‍पन्‍न सभी वस्‍तु और भूतजाल जीवित रहते हैं, और आनन्‍द में ही लीन रहते हैं. आनन्‍द ही सब कुछ है... और आनन्‍द
का एकायन उपस्‍थ है. अन्‍य सभी वस्‍तुएं आनन्‍द के उपकरण हैं. यह समस्‍त का भाव है. जब हम किसी बाह्यरूप आदि की निष्‍प्रयोजन उत्तेजना के कारण उपचेतन का कोई अंश उत्तेजित हो जाता है तब उस उत्तेजक रूपादि के साथ उस स्‍वगत विशेष अंश के उपलक्षित सादृश्‍य या सामंजस्‍य के कारण उपचेतन का यह अंश बाह्य रूपादिविशेष में अपने स्‍वरूप का परिचय प्राप्‍त करता है, इस परिचय के फलस्‍वरूप प्राप्‍त होने वाले आत्‍मलाभ से ही आनन्‍द उद्भासित होता है. यह आत्‍मलाभ हमारे अन्‍दर व्‍याप्‍त द्वैतता, भय, शंका, असन्‍तोष, अतृप्ति के भावों को समझ कर हमें अभय भाव प्रदान करता है. आनन्‍द हमारी आत्‍मा का लक्षण है, जब हम दुख या शोक संतप्‍त होते हैं तो आनन्‍द का अभाव रहता है. कहा जाए तो एक सामरस्‍य बोध की चित स्थिति ही आनन्‍द की स्थिति कही जा सकती है. किन्‍तु आनन्‍द आत्‍मा का स्‍वाभाविक गुण है. यह नित्‍य है, पूर्ण है, यहां तक कि आनन्‍द के अंशमात्र से ही सभी जीव प्राणवान रहते हैं.
हमारे नित्‍य व्‍यवहार के जीवन व्‍यापार के अन्‍दर आनन्‍द के अर्थ के अनेक छायारूप दृष्टिगोचर होते हैं, जो हमारे सामान्‍य सुख-भाव मनोरंजन से लेकर आत्‍म साक्षात्‍कार लाभ तथा ब्रह्मानुभूति तक है, वे लौकिक भी हैं, लोकोत्तर भी हैं. हम उन्‍हें अपने भावबोध के अनुसार, तन-मन के संवेग के अनुसार ग्रहण करते हैं. काव्‍य रसिक या आध्‍यात्मिक पुरुष या योगी का आनन्‍द सामान्‍य लौकिक आनन्‍द से नितान्‍त भिन्‍न होता है. आनन्‍द द्वन्‍द्व मुक्‍त होता है, यह अनुभवैकगम्‍य है. यह घनीभूत भाव है. सुख इससे भिन्‍न है, वह तो आनन्‍द का अंश मात्र है, उसकी अल्‍प मात्रा है. उसमें पूर्णता नहीं होती. आनन्‍द शाश्‍वत सुख है, वह परमसुख है, आनन्‍द में विशुद्ध सत्‍व होता है, परन्‍तु सुख में ऐसा नहीं होता, तमस से, रजस से भी हमें सुख प्राप्‍त हो सकता है. वास्‍तव में आनन्‍द आत्‍मा का मुक्तिलाभ है, हम इन्द्रियों के सुखलाभ से मुक्‍त होकर एक निरातिशय भावस्थिति का लाभ प्राप्‍त करते हैं. आनन्‍द सदा वर्तमान रहता है, ज‍बकि सुख सातिशय है, वह एक परिस्थिति विशेष तक रहकर ही समाप्‍त हो जाता है. आनन्‍द आत्‍मा का धर्म है और सुख काया का धर्म है, सुख हमारे चंचल मन की एक स्थिति है, लेकिन अचंचल स्थिर होता है, उसमें एक गम्‍भीर परिशान्ति का चितास्‍वाद रहता है. काव्‍यशास्‍त्र में अभिनवगुप्‍त ने इसे स्‍व-संविद विश्रान्ति कहा है, इसे ही लय-समाधि की स्थिति भी कहा है. हमारी दैव शक्ति का पूर्णविस्‍तार और गहनता, आनन्‍द में ही अभिव्‍यक्‍त होती है, जब हमारी आत्‍मा सामान्‍य लौकिक धरातल से उसकी समस्‍त गतियों, दशाओं से ऊपर उठ जाती है और हम उसमें एक नूतन संचार का लोकभिन्‍न अनुभूति का आस्‍वादन करते हैं. वैष्‍णव धर्म में चैतन्‍य महाप्रभु की भावावस्‍था इसी प्रकार की होती थी.
उपनिषदों तथा अध्‍यात्‍मयोग में दुख शोकरहित अवस्‍था को आन्‍नदमय कहा है, वहां ब्रह्म के वर्णन में आनन्‍द का स्‍थापन किया गया है. तैत्तरीयोपनिषद में एक कथा है कि भृगु जब अपने पिता अथवा गुरु वरुण के पास आत्‍म उपदेश के लिए गए तो उन्‍होंने बार बार तक करने की शिक्षा दी और बार बार तक करने पर भी जब भृगु सन्‍तुष्‍ट नहीं हुए, तब आनन्‍द सिद्धान्‍त का ज्ञान प्राप्‍त करके ही उन्‍हें सन्‍तोष हुआ. विवेक और विज्ञान से भी आनन्‍द को अधिक महत्त्‍व देने वाले भारतीय ऋषि अपने इस सिद्धान्‍त का परम्‍परा से प्रचार करते रहे हैं.
किन्‍तु इससे नितान्‍त भिन्‍न स्‍थिति काव्‍यानन्‍द की है. वहॉं दुखात्‍मक वर्णन में भी सहृदय को आनन्‍द का अनुभव होता है. वास्‍तव में ब्रह्मानन्‍द सहोदर रसानन्‍द की भावदशा ऐसी ही होती है. महान कवि गेटे ने कहा है -
सिद्ध करूँ उन तृषित वृ‍त्तियों से मैं
आनन्‍दातिरेक ये होती दुख की ही अनुभूति.
जब पूर्णता का अभाव रहता है, तब आनन्‍द में दुख की अनुभूति होती है, यही बात विलियम जेम्‍स ने अपने ग्रन्‍थ वेराइटीज़ ऑफ रिलिजियस एक्‍सपीरियन्‍स' में साधु पीरो के वचन उद्धृत करते हुए लिखा है - मैं यह नहीं जानता कि दार्शनिक शोक की वेदनाओं को किन भौतिक नियमों से समझाएंगे. मुझे तो यह विदित होता है कि शोक की वेदनाएं सबसे अधिक इन्द्रिय सुख देनेवाली हैं. जीवन का मर्म कहता है, आदि कति वाल्मी‍कि ने भी करुणा विचलित होकर ही काव्‍य रचना की थी.
भारतीय चिन्‍तन में जिस प्रकार की प्रतिष्‍ठा आनन्‍द की चिन्‍मयता को मिली है, वैसी अन्‍य किसी भावानुभूति को नहीं मिल सकी. उपनिषदों में आनन्‍द की प्रतिष्‍ठा के साथ प्रेम और प्रमोद की कल्‍पना भी हो गई थी, जो आनन्‍द सिद्धान्‍त के लिए आवश्‍यक है. वैदिक धारा के अनुयायी आर्यों में आनन्‍द का सिद्धान्‍त प्रचारित हुआ, आनन्‍दमयी आत्‍मा की उपलब्धि विकल्‍पात्‍मक विचारों और तर्कों से नहीं हो सकती. तैत्तारीयोपनिषद में इस विचार का विवेचन किया गया है.
आनन्‍द अप्रत्‍याशित वस्‍तु से प्राप्‍त होता है, आनन्‍द का कारण ही इच्‍छा की तृप्ति है. हम कह सकते हैं कि अपनी चेतना-अचेतना या व्‍यक्‍त-अव्‍यक्‍त आकांक्षाओं एवं कामनाओं की तृप्ति के फलस्‍वरूप हम आनन्‍द का अनुभव करते हैं. किसी अस्‍फुट आकांक्षा को मूर्त रूप मिलने पर हमें आनन्‍द मिलता है. डा. दासगुप्‍ता ने लिखा है कि 'हमारे अन्‍तर में स्‍थित प्रत्‍येक पुरुष का एक स्‍वतन्‍त्र व्‍यापार चला करता है. उसी के अनुकूल विशेष आकांक्षाओं का जन्‍म होता है, और उन आकांक्षाओं के अनुरूप विशेष वृत्तियॉं जन्‍मती हैं, जिनके अव्‍याहत प्रयोग अथवा उनकी परि‍तृप्ति के परिणामस्‍वरूप एक प्रकार का आत्‍मलाभ अथवा आत्‍मपरिचय घटित होता है. इसी आत्‍मलाभ से पुरुष-विशेष के विभिन्‍न जातीय आनन्‍द का जन्‍म होता है.' अभिनवगुप्‍त ने विषयानन्‍द, काव्‍यानन्‍द और ब्रह्मानन्‍द के बीच स्‍पष्‍ट अन्‍तर किया है. वे ब्रह्मानन्‍द को विशुद्ध चित का संचित या आत्‍मा का आस्‍वाद मानते हैं और काव्‍यानन्‍द को चित के विशिष्‍ट भाव का आस्‍वाद, जिसमें हृदय तत्त्‍व की प्रधानता रहती है.
इसी प्रकार आनन्‍द और सौन्‍दर्यबोध का भी गहरा सम्‍बन्‍ध है, सौन्‍दर्य हमारी इन्द्रियों का प्रसादन कर उन्‍हें आनन्‍द प्रदान करता है, किन्‍तु सभी प्रकार के आनन्‍द में सौन्‍दर्य नहीं होता, आनन्‍द सहज भाव है. तब प्रश्‍न आता है कि आनन्‍द वस्‍तु में होता है या भावना में होता है. आनन्‍द में एक सामंजस्‍य, एक सामरस्‍य होता है, जो आत्‍मनिष्‍ठता और वस्‍तुनिष्‍ठता की स्थिति से मुक्‍त होता है. इसीलिए कलात्‍मक आनन्‍द को विशुद्ध आनन्‍द कहना समीचीन नहीं लगता, क्‍योंकि का का आनन्‍द वस्‍तु के सौन्‍दर्यबोध का आनन्‍द होता है, परन्‍तु अनुभूति की प्रधानता उसमें भी रहती है, सारायनां ने कलात्‍मक आनन्‍द को अन्‍य प्रकार के आनन्‍द से भिन्‍न माना है. कलात्‍मक आनन्‍द शब्‍द में, महत्त्‍वपूर्ण आनन्‍द नहीं है, बल्कि कलात्‍मकता हे, वहां कलात्‍मक शब्‍द के द्वारा ही आनन्‍द का निर्धारण होता है, आनन्‍द के द्वारा कलात्‍मक का नहीं. आनन्‍द की पूर्णदशा में हमारे चित में किसी प्रकार की भावना का आनन्‍द नहीं होता. आनन्‍द सर्वामात्‍मवशं सुखम्' जहां द्वितीय नहीं है, वहां सब कुछ स्‍वभावतया आनन्‍दमय है. चिद्-भाव ही आनन्‍द की अतीत परमसत्ता में विराजमान हो सकता है. यह आनन्‍द के साथ अभिन्‍न होकर प्रकट होता है. यह चित वास्‍तव में चित् शक्ति का स्‍वरूप है एवं वह जब अपने अभिमुख होता है तथा अनुकूल संवेदन के रूप में प्रकाशमान होता है, तब वह आनन्‍द कहा जाता है. यह आनन्‍द आह्लादिनी श‍क्ति का स्‍वरूप है.
आनन्‍द की अवस्‍था एक नितान्‍त मुक्‍त और स्‍वतन्‍त्र अवस्‍था है, जो नित्‍य अनुकूल भावमय है, उसमें प्रतिकूल भाव नहीं होता. आनन्‍द आत्‍मरमण है, यह आत्‍मराम की स्थिति है, यह एक से दो की अभिव्‍यक्ति है, बृहदारण्‍यकोपनिषद में वर्णित है - 'स एकाकीन तदात्‍ममाद्विधा अकरोत, इसीलिए सृष्टि को भी आनन्‍द कहा गया है. वास्‍तव में एक परमसत्ता के अतिरिक्‍त जो आनन्‍द है, अन्‍य कोई सत्ता नहीं होती किन्‍तु प्रतिभास रूप में एक कल्पित बाह्य सत्ता मान लेनी पड़ती है. इसे इच्‍छा का विकास भी कह सकते हैं और निष्‍काम होना भी, किन्‍तु जहां आनन्‍दपूर्ण है, वहां इच्‍छा नाम की किसी शक्ति या भावना का अस्तित्‍व नहीं होता. आध्‍यात्‍मिकता में अद्वय तत्‍व का निरुपण करते हुए आत्‍मा का स्‍वरूप चिदानन्‍दमय माना गया है, यह मानकर इस अभिन्‍न शक्ति का भी चित शक्ति और आनन्‍द शकक्ति के नाम से वर्णन किया गया है. इस चित् शक्ति के प्रकटीकरण के विषय में अरविन्‍द ने कहा है, 'विश्‍व सत्ता शिव का आनन्‍द नृत्‍य है जो ईश्‍वर को असंख्‍य रूपों में दृश्‍य बनाता है, परन्‍तु वह उस परमसत्ता को ठीक वहीं और उसी रूप में रहने देता है, उसका एकमात्र उद्देश्‍य है, नृत्‍य का आनन्‍द ब्रह्म का आनन्‍द सौन्‍दर्य सामंजस्‍य प्रेम, शान्ति आदि रूपों में प्रकट होता है. आनन्‍द में अनंत भावविस्‍तार निहित होता है, वह व्‍यष्टिभाव को समष्टिभाव में रूपायित करने का एकमात्र साधन है.
आनन्‍द वास्‍तव में शुभ है, मंगलविधायक है, आचार्य शुक्‍ल आनन्‍द को इसी अर्थ में स्‍वीकार करते हैं. यह हृदय की सृष्टि शक्ति है, अभिनवगुप्‍त हृदय की स्‍पन्‍दशक्ति को आनन्‍दशक्ति कहते हैं. इसी के कारण मनुष्‍य सहृदय कहलाता है. अभिनवगुप्‍त ने आनन्‍द की आठ कोटियॉं बताई हैं, 'प्राणानन्‍द, निजानन्‍द, निरानन्‍द, परानन्‍द, ब्रह्मानन्‍द, महानन्‍द,‍ चिद्आनन्‍द और जगदानन्‍द.
आनन्‍द का क्‍या स्‍वरूप है. उसकी भावस्‍‍फीति क्‍या है. इसको कैसेट परिभाषाबद्ध किया जाए, यह एक कठिन कार्य है, जहां कोई अन्‍य बाह्य सत्ता का भाव या मनोविकार नहीं रहता, इच्‍छा नहीं रहती, वह भाव जो अपने आप में परिपूर्ण है, वह अनन्‍त है, अल्‍प नहीं है. आनन्‍द हमारी भावनिरपेक्ष चितस्थिति कहा जा सकता है. ब्‍लावादस्‍की के अनुसार कबाइलियों का कहना है, 'लोकों के अस्तित्‍व के मूल में आनन्‍द है, अर्थात् संसार और अन्‍य लोकों की सृष्टि आनन्‍द से हुई है, 'आनन्‍द हमारा चक्षु उन्‍मीलन है, यह हमें एक सात्विक प्रकाश प्रदान करता है, हमारा अज्ञान, अभावात्मक दृष्टि, सुख-दुख की भिन्‍नता का बोध इसमें समाप्‍त हो जाता है. हृदय रागभाव से पूरित हो उठता है, प्रसाद जी ने कामायनी के आन्‍नद सर्ग में इस भाव को इन पंक्तियों में प्रस्‍तुत किया है-
समरस थे जड़ या चेतन
सुन्‍दर साकार बना था
चेतनता एक विलसती
आनन्‍द अखंड बना था.

इस स्थिति में किसी अन्‍य भाव का बोध नहीं रहता, इसमें आत्‍मरस का आस्‍वादन होता रहता है. पूर्णता अपूर्णता की सीमाएं तिरोहित हो जाती है. स्‍वयं में अखंड, अभिन्‍न-भाव का अनुभव होता है. यह आनन्‍द-दशा है. इसे हम विशुद्ध आत्‍मज्ञान की दशा कह सकते हैं.
इस विश्‍व में किसी न किसी रूप में जिसको सभी प्राप्‍त करना चाहते हैं, वह है एकमात्र आनन्‍द. यही इष्‍ट-प्राप्ति है, सभी ज्ञात-अज्ञात रूप से एकमात्र आनन्‍द की ही कामना करते हैं, सब दुख से बचना चाहते हैं, महाभारत के शान्तिपर्व में इस विषय में बहुत सुन्‍दर कहा गया है -

दु:ख दुद्विजतेसर्वा सर्वस्‍य सुखभीप्‍सितम
अर्थात् दु:ख से सभी ऊब जाते हैं, सब ही सुख की कामना करते हैं. महाभारत के ही शान्तिपर्व में व्‍यास जी ने ऐसी मनोदशा के लिए युधिष्‍ठर को उपदेश देते हुए कहा है :
सुख वा यदि वा दुख प्रिय वा यदि वा प्रियम
प्राप्‍त प्राप्‍तमुपासीत हृदयेना पराजित:

चाहे सुख हो या दुख, प्रिय से हो अथवा अप्रिय से, जो जिस समय जैसे प्राप्‍त हो वह उस समय वैसे ही मन को निराश न करते हुए सेवन करते रहो.

असंतोष हमारे दुखों का मूल है, यह चित को चंचल बनाता है, वह अपनी तृष्‍णा, कामना के वशीभूत हो जाता है, अत: आनन्‍दप्राप्ति के लि चित को वश में करना अत्‍यावश्‍यक होता है. आनन्‍द ही सब दुखों का एकमात्र उपचार है. साधक भी आनन्‍द के अभाव के कारण ही आनन्‍द प्राप्ति की कामना करता है, यह स्थिति तभी तक है जब तक वह द्वैतमूलक स्‍वभाव या स्थिति में रहता है, अद्वयता की भावना होते ही सभी दुख, क्‍लेश, अभाव, असन्‍तोष, निराशा के भाव नष्‍ट हो जाते हैं. वास्‍तव में हम बिखरे हुए आनन्‍द को घनीभूत करने पर ही परमानन्‍द को प्राप्‍त कर सकते हैं. वैसे प्रत्‍येक जीव के आनन्‍दभाव में अन्‍तर हो सकता है, जबतक कि वह आनन्‍द की एकरूपता और अखंडता को नहीं पहचानता क्‍योंकि हमारी चित् दशा भिन्‍न हो सकती है, परन्‍तु आनन्‍दभाव तो एक रूप ही है.
आनन्‍द इष्‍ट साधना है, परमचिति में लीन होना है, उससे एकमेक होने की परमावस्‍था है, यह चैतन्‍य का विकास है, जब मनुष्‍य अपने संकुचित रूप से मुक्‍त हो जाता है, वह विराटता का अनुभव करता है. आनन्‍द सुख-भोग नहीं है, जो जीव को अपने आप में ही लिप्‍त करता है, उसे अज्ञान और असन्‍तोष की दशा में ले जाता है. आनन्‍द भोग नहीं है, आनन्‍द की भावदशा में भोक्‍ता और स्‍वयं भोग्‍य बन जाता है, कामना और काम्‍य एक हो जाते हैं, आनन्‍द रूपममृतयद्विभाति, वह स्‍वयं ही आनन्‍द रूप है, अमृतरूप है.
हमारी आनन्‍दावस्‍था में आत्‍मा का उन्‍नयन होता चला जाता है, किन्‍तु हमारा आनन्‍दभाव किस में है, यह जान लेना परमावश्‍यक है, यह अनिवार्य नहीं कि सुख-भाव में ही आनन्‍द निहित होता है, मनोविज्ञान और काव्‍यरस के अनुसार दुखात्‍मक अवस्‍था में भी भावास्‍वाद आनन्‍दपूर्ण होता है. हमारी समस्‍त क्रियाएं, सुखतत्वास्‍थित नहीं हैं. कुछ दुखात्‍मक दशा अथवा करुणाविगलित चितावस्‍था मानवात्‍मा को आनन्‍द विभोर कर देते हैं. दुख हमारी संवेदनाओं को अधिक तीव्र वेग से जागृत करता है, उन्‍हें उभारता है, तब स्‍पष्‍ट होता है कि मनुष्‍य क्षुद्रमन लेकर जी रहा हे, वह वृहतमन से उसके निर्द्वन्‍द्व वेगों से घबराता है, किन्‍तुजब क्षुद्रमन के विाकर विलीन हो जाते हैं तो बृहतमन के संस्‍कार उसी भाव को आनन्‍दमय बना देते हैं, तब कहा जाता है - 'वैराग्‍यस्‍य पराकाष्‍ठा ज्ञानम' - वैराग्‍य ज्ञान की पराकाष्‍ठा है, तब आनन्‍द अपने आप ही निसृत होने लगता है, गीता में इसका सुन्‍दर उल्‍लेख है.
श्रुत्‍वा पृष्‍ट्वा दृष्‍टा च मुक्‍त्‍वा स्रात्‍वाशुभाशुभम्
न हृष्‍यति ग्‍लायति य: स शान्‍त इति कथ्‍यते
जो महापुरुष शुभाशुभ दर्शन, स्‍पर्शन, श्रवण, भोजन तथा शुभाशुभ जल से स्‍नान कर हष्र या ग्‍लानि युक्‍त नहीं होते, वही शान्‍त कहलाते हैं. वैराग्‍य भाव से हमें शान्‍त और सम्‍यक् होने का ज्ञान देता है. तब हमारा चित प्रीति और सौन्‍दर्य से भरकर केवल आनन्‍द का ही आस्‍वादन करता है. आनन्‍द सम्‍यक ज्ञान का बोधक है, यही शिव है, कल्‍याणकारी है :
ज्ञानं यत्र समाभाति शरणं ज्ञानिना व्रजेत
अज्ञानिनां वर्जायित्‍वा शरणं ज्ञानिना व्रजेत
ऐसा व्‍यक्ति आज्ञानियों का त्‍यागकर ज्ञानियों की संगति करता है. आनन्‍द शुीा की नियुक्ति है, यह ज्ञानियों की संगति करता है. आनन्‍द शुभ की नियुक्ति है, यह आत्‍मा का शाश्‍वत धर्म है, यह ऐन्द्रिक सुख से नितान्‍त असंश्लिष्‍ट रहता है. यह आनन्‍द अन्‍य उद्देश्‍य निरपेक्ष होने पर ज्ञान के आकार में प्रकट होता है. यह भाव अव्‍यक्त होकर भी हमें समरसता प्रदान करता है.

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